JAI SHRI RAM

JAI SHRI RAM

Wednesday, 15 August 2012



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एक बार जननीं अन्हवाए। करि सिंगार पलनाँ पौढ़ाए।।

निज कुल इष्टदेव भगवाना। पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना।।

करि पूजा नैबेद्य चढ़ावा। आपु गई जहँ पाक बनावा।।

बहुरि मातु तहवाँ चलि आई। भोजन करत देख सुत जाई।।

गै जननी सिसु पहिं भयभीता। देखा बाल तहाँ पुनि सूता।।

बहुरि आइ देखा सुत सोई। हृदयँ कंप मन धीर न होई।।

इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा। मतिभ्रम मोर कि आन बिसेषा।।

देखि राम जननी अकुलानी। प्रभु हँसि दीन्ह मधुर मुसुकानी।।

दो0-देखरावा मातहि निज अदभुत रुप अखंड।

रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मंड।। 201।।

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अगनित रबि ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरित सिंधु महि कानन।।

काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ। सोउ देखा जो सुना न काऊ।।

देखी माया सब बिधि गाढ़ी। अति सभीत जोरें कर ठाढ़ी।।

देखा जीव नचावइ जाही। देखी भगति जो छोरइ ताही।।

तन पुलकित मुख बचन न आवा। नयन मूदि चरननि सिरु नावा।।

बिसमयवंत देखि महतारी। भए बहुरि सिसुरूप खरारी।।

अस्तुति करि न जाइ भय माना। जगत पिता मैं सुत करि जाना।।

हरि जननि बहुबिधि समुझाई। यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई।।

दो0-बार बार कौसल्या बिनय करइ कर जोरि।।

अब जनि कबहूँ ब्यापै प्रभु मोहि माया तोरि।। 202।।

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बालचरित हरि बहुबिधि कीन्हा। अति अनंद दासन्ह कहँ दीन्हा।।

कछुक काल बीतें सब भाई। बड़े भए परिजन सुखदाई।।

चूड़ाकरन कीन्ह गुरु जाई। बिप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई।।

परम मनोहर चरित अपारा। करत फिरत चारिउ सुकुमारा।।

मन क्रम बचन अगोचर जोई। दसरथ अजिर बिचर प्रभु सोई।।

भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा।।

कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमकु ठुमकु प्रभु चलहिं पराई।।

निगम नेति सिव अंत न पावा। ताहि धरै जननी हठि धावा।।

धूरस धूरि भरें तनु आए। भूपति बिहसि गोद बैठाए।।

दो0-भोजन करत चपल चित इत उत अवसरु पाइ।

भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ।।203।।

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बालचरित अति सरल सुहाए। सारद सेष संभु श्रुति गाए।।

जिन कर मन इन्ह सन नहिं राता। ते जन बंचित किए बिधाता।।

भए कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता।।

गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई।।

जाकी सहज स्वास श्रुति चारी। सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी।।

बिद्या बिनय निपुन गुन सीला। खेलहिं खेल सकल नृपलीला।।

करतल बान धनुष अति सोहा। देखत रूप चराचर मोहा।।

जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई। थकित होहिं सब लोग लुगाई।।

दो0- कोसलपुर बासी नर नारि बृद्ध अरु बाल।

प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुँ राम कृपाल।।204।।

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बंधु सखा संग लेहिं बोलाई। बन मृगया नित खेलहिं जाई।।

पावन मृग मारहिं जियँ जानी। दिन प्रति नृपहि देखावहिं आनी।।

जे मृग राम बान के मारे। ते तनु तजि सुरलोक सिधारे।।

अनुज सखा सँग भोजन करहीं। मातु पिता अग्या अनुसरहीं।।

जेहि बिधि सुखी होहिं पुर लोगा। करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा।।

बेद पुरान सुनहिं मन लाई। आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई।।

प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा।।

आयसु मागि करहिं पुर काजा। देखि चरित हरषइ मन राजा।।

दो0-ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम न रूप।

भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप।।205।।

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यह सब चरित कहा मैं गाई। आगिलि कथा सुनहु मन लाई।।

बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहि बिपिन सुभ आश्रम जानी।।

जहँ जप जग्य मुनि करही। अति मारीच सुबाहुहि डरहीं।।

देखत जग्य निसाचर धावहि। करहि उपद्रव मुनि दुख पावहिं।।

गाधितनय मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहि न निसिचर पापी।।

तब मुनिवर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा।।

एहुँ मिस देखौं पद जाई। करि बिनती आनौ दोउ भाई।।

ग्यान बिराग सकल गुन अयना। सो प्रभु मै देखब भरि नयना।।

दो0-बहुबिधि करत मनोरथ जात लागि नहिं बार।

करि मज्जन सरऊ जल गए भूप दरबार।।206।।

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मुनि आगमन सुना जब राजा। मिलन गयऊ लै बिप्र समाजा।।

करि दंडवत मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी।।

चरन पखारि कीन्हि अति पूजा। मो सम आजु धन्य नहिं दूजा।।

बिबिध भाँति भोजन करवावा। मुनिवर हृदयँ हरष अति पावा।।

पुनि चरननि मेले सुत चारी। राम देखि मुनि देह बिसारी।।

भए मगन देखत मुख सोभा। जनु चकोर पूरन ससि लोभा।।

तब मन हरषि बचन कह राऊ। मुनि अस कृपा न कीन्हिहु काऊ।।

केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावउँ बारा।।

असुर समूह सतावहिं मोही। मै जाचन आयउँ नृप तोही।।

अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा।।

दो0-देहु भूप मन हरषित तजहु मोह अग्यान।

धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान।।207।।

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सुनि राजा अति अप्रिय बानी। हृदय कंप मुख दुति कुमुलानी।।

चौथेंपन पायउँ सुत चारी। बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी।।

मागहु भूमि धेनु धन कोसा। सर्बस देउँ आजु सहरोसा।।

देह प्रान तें प्रिय कछु नाही। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माही।।

सब सुत प्रिय मोहि प्रान कि नाईं। राम देत नहिं बनइ गोसाई।।

कहँ निसिचर अति घोर कठोरा। कहँ सुंदर सुत परम किसोरा।।

सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी। हृदयँ हरष माना मुनि ग्यानी।।

तब बसिष्ट बहु निधि समुझावा। नृप संदेह नास कहँ पावा।।

अति आदर दोउ तनय बोलाए। हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए।।

मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ।।

दो0-सौंपे भूप रिषिहि सुत बहु बिधि देइ असीस।

जननी भवन गए प्रभु चले नाइ पद सीस।।208(क)।।

सो0-पुरुषसिंह दोउ बीर हरषि चले मुनि भय हरन।।

कृपासिंधु मतिधीर अखिल बिस्व कारन करन।।208(ख)

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अरुन नयन उर बाहु बिसाला। नील जलज तनु स्याम तमाला।।

कटि पट पीत कसें बर भाथा। रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा।।

स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। बिस्बामित्र महानिधि पाई।।

प्रभु ब्रह्मन्यदेव मै जाना। मोहि निति पिता तजेहु भगवाना।।

चले जात मुनि दीन्हि दिखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई।।

एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा।।

तब रिषि निज नाथहि जियँ चीन्ही। बिद्यानिधि कहुँ बिद्या दीन्ही।।

जाते लाग न छुधा पिपासा। अतुलित बल तनु तेज प्रकासा।।

दो0-आयुष सब समर्पि कै प्रभु निज आश्रम आनि।

कंद मूल फल भोजन दीन्ह भगति हित जानि।।209।।

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प्रात कहा मुनि सन रघुराई। निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई।।

होम करन लागे मुनि झारी। आपु रहे मख कीं रखवारी।।

सुनि मारीच निसाचर क्रोही। लै सहाय धावा मुनिद्रोही।।

बिनु फर बान राम तेहि मारा। सत जोजन गा सागर पारा।।

पावक सर सुबाहु पुनि मारा। अनुज निसाचर कटकु सँघारा।।

मारि असुर द्विज निर्मयकारी। अस्तुति करहिं देव मुनि झारी।।

तहँ पुनि कछुक दिवस रघुराया। रहे कीन्हि बिप्रन्ह पर दाया।।

भगति हेतु बहु कथा पुराना। कहे बिप्र जद्यपि प्रभु जाना।।

तब मुनि सादर कहा बुझाई। चरित एक प्रभु देखिअ जाई।।

धनुषजग्य मुनि रघुकुल नाथा। हरषि चले मुनिबर के साथा।।

आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं।।

पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कहा बिसेषी।।

दो0-गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर।

चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर।।210।।

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छं0-परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तपपुंज सही।

देखत रघुनायक जन सुख दायक सनमुख होइ कर जोरि रही।।

अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।

अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही।।

धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई।

अति निर्मल बानीं अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई।।

मै नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई।

राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई।।

मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना।

देखेउँ भरि लोचन हरि भवमोचन इहइ लाभ संकर जाना।।

बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना।

पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना।।

जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी।

सोइ पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी।।

एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी।

जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पतिलोक अनंद भरी।।

दो0-अस प्रभु दीनबंधु हरि कारन रहित दयाल।

तुलसिदास सठ तेहि भजु छाड़ि कपट जंजाल।।211।।

मासपारायण, सातवाँ विश्राम

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चले राम लछिमन मुनि संगा। गए जहाँ जग पावनि गंगा।।

गाधिसूनु सब कथा सुनाई। जेहि प्रकार सुरसरि महि आई।।

तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए। बिबिध दान महिदेवन्हि पाए।।

हरषि चले मुनि बृंद सहाया। बेगि बिदेह नगर निअराया।।

पुर रम्यता राम जब देखी। हरषे अनुज समेत बिसेषी।।

बापीं कूप सरित सर नाना। सलिल सुधासम मनि सोपाना।।

गुंजत मंजु मत्त रस भृंगा। कूजत कल बहुबरन बिहंगा।।

बरन बरन बिकसे बन जाता। त्रिबिध समीर सदा सुखदाता।।

दो0-सुमन बाटिका बाग बन बिपुल बिहंग निवास।

फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास।।212।।

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बनइ न बरनत नगर निकाई। जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई।।

चारु बजारु बिचित्र अँबारी। मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी।।

धनिक बनिक बर धनद समाना। बैठ सकल बस्तु लै नाना।।

चौहट सुंदर गलीं सुहाई। संतत रहहिं सुगंध सिंचाई।।

मंगलमय मंदिर सब केरें। चित्रित जनु रतिनाथ चितेरें।।

पुर नर नारि सुभग सुचि संता। धरमसील ग्यानी गुनवंता।।

अति अनूप जहँ जनक निवासू। बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू।।

होत चकित चित कोट बिलोकी। सकल भुवन सोभा जनु रोकी।।

दो0-धवल धाम मनि पुरट पट सुघटित नाना भाँति।

सिय निवास सुंदर सदन सोभा किमि कहि जाति।।213।।

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सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा। भूप भीर नट मागध भाटा।।

बनी बिसाल बाजि गज साला। हय गय रथ संकुल सब काला।।

सूर सचिव सेनप बहुतेरे। नृपगृह सरिस सदन सब केरे।।

पुर बाहेर सर सारित समीपा। उतरे जहँ तहँ बिपुल महीपा।।

देखि अनूप एक अँवराई। सब सुपास सब भाँति सुहाई।।

कौसिक कहेउ मोर मनु माना। इहाँ रहिअ रघुबीर सुजाना।।

भलेहिं नाथ कहि कृपानिकेता। उतरे तहँ मुनिबृंद समेता।।

बिस्वामित्र महामुनि आए। समाचार मिथिलापति पाए।।

दो0-संग सचिव सुचि भूरि भट भूसुर बर गुर ग्याति।

चले मिलन मुनिनायकहि मुदित राउ एहि भाँति।।214।।

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कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा। दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा।।

बिप्रबृंद सब सादर बंदे। जानि भाग्य बड़ राउ अनंदे।।

कुसल प्रस्न कहि बारहिं बारा। बिस्वामित्र नृपहि बैठारा।।

तेहि अवसर आए दोउ भाई। गए रहे देखन फुलवाई।।

स्याम गौर मृदु बयस किसोरा। लोचन सुखद बिस्व चित चोरा।।

उठे सकल जब रघुपति आए। बिस्वामित्र निकट बैठाए।।

भए सब सुखी देखि दोउ भ्राता। बारि बिलोचन पुलकित गाता।।

मूरति मधुर मनोहर देखी। भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी।।

दो0-प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर।

बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर।।215।।

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कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक। मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक।।

ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा।।

सहज बिरागरुप मनु मोरा। थकित होत जिमि चंद चकोरा।।

ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ। कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ।।

इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा। बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा।।

कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका। बचन तुम्हार न होइ अलीका।।

ए प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी। मन मुसुकाहिं रामु सुनि बानी।।

रघुकुल मनि दसरथ के जाए। मम हित लागि नरेस पठाए।।

दो0-रामु लखनु दोउ बंधुबर रूप सील बल धाम।

मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर संग्राम।।216।।

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मुनि तव चरन देखि कह राऊ। कहि न सकउँ निज पुन्य प्राभाऊ।।

सुंदर स्याम गौर दोउ भ्राता। आनँदहू के आनँद दाता।।

इन्ह कै प्रीति परसपर पावनि। कहि न जाइ मन भाव सुहावनि।।

सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू। ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू।।

पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू। पुलक गात उर अधिक उछाहू।।

म्रुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू। चलेउ लवाइ नगर अवनीसू।।

सुंदर सदनु सुखद सब काला। तहाँ बासु लै दीन्ह भुआला।।

करि पूजा सब बिधि सेवकाई। गयउ राउ गृह बिदा कराई।।

दो0-रिषय संग रघुबंस मनि करि भोजनु बिश्रामु।

बैठे प्रभु भ्राता सहित दिवसु रहा भरि जामु।।217।।

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लखन हृदयँ लालसा बिसेषी। जाइ जनकपुर आइअ देखी।।

प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं। प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं।।

राम अनुज मन की गति जानी। भगत बछलता हिंयँ हुलसानी।।

परम बिनीत सकुचि मुसुकाई। बोले गुर अनुसासन पाई।।

नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं। प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं।।

जौं राउर आयसु मैं पावौं। नगर देखाइ तुरत लै आवौ।।

सुनि मुनीसु कह बचन सप्रीती। कस न राम तुम्ह राखहु नीती।।

धरम सेतु पालक तुम्ह ताता। प्रेम बिबस सेवक सुखदाता।।

दो0-जाइ देखी आवहु नगरु सुख निधान दोउ भाइ।

करहु सुफल सब के नयन सुंदर बदन देखाइ।।218।।

मासपारायण, आठवाँ विश्राम

नवान्हपारायण, दूसरा विश्राम

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मुनि पद कमल बंदि दोउ भ्राता। चले लोक लोचन सुख दाता।।

बालक बृंदि देखि अति सोभा। लगे संग लोचन मनु लोभा।।

पीत बसन परिकर कटि भाथा। चारु चाप सर सोहत हाथा।।

तन अनुहरत सुचंदन खोरी। स्यामल गौर मनोहर जोरी।।

केहरि कंधर बाहु बिसाला। उर अति रुचिर नागमनि माला।।

सुभग सोन सरसीरुह लोचन। बदन मयंक तापत्रय मोचन।।

कानन्हि कनक फूल छबि देहीं। चितवत चितहि चोरि जनु लेहीं।।

चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी। तिलक रेखा सोभा जनु चाँकी।।

दो0-रुचिर चौतनीं सुभग सिर मेचक कुंचित केस।

नख सिख सुंदर बंधु दोउ सोभा सकल सुदेस।।219।।

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देखन नगरु भूपसुत आए। समाचार पुरबासिन्ह पाए।।

धाए धाम काम सब त्यागी। मनहु रंक निधि लूटन लागी।।

निरखि सहज सुंदर दोउ भाई। होहिं सुखी लोचन फल पाई।।

जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं। निरखहिं राम रूप अनुरागीं।।

कहहिं परसपर बचन सप्रीती। सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती।।

सुर नर असुर नाग मुनि माहीं। सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीं।।

बिष्नु चारि भुज बिघि मुख चारी। बिकट बेष मुख पंच पुरारी।।

अपर देउ अस कोउ न आही। यह छबि सखि पटतरिअ जाही।।

दो0-बय किसोर सुषमा सदन स्याम गौर सुख घाम ।

अंग अंग पर वारिअहिं कोटि कोटि सत काम।।220।।

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कहहु सखी अस को तनुधारी। जो न मोह यह रूप निहारी।।

कोउ सप्रेम बोली मृदु बानी। जो मैं सुना सो सुनहु सयानी।।

ए दोऊ दसरथ के ढोटा। बाल मरालन्हि के कल जोटा।।

मुनि कौसिक मख के रखवारे। जिन्ह रन अजिर निसाचर मारे।।

स्याम गात कल कंज बिलोचन। जो मारीच सुभुज मदु मोचन।।

कौसल्या सुत सो सुख खानी। नामु रामु धनु सायक पानी।।

गौर किसोर बेषु बर काछें। कर सर चाप राम के पाछें।।

लछिमनु नामु राम लघु भ्राता। सुनु सखि तासु सुमित्रा माता।।

दो0-बिप्रकाजु करि बंधु दोउ मग मुनिबधू उधारि।

आए देखन चापमख सुनि हरषीं सब नारि।।221।।

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देखि राम छबि कोउ एक कहई। जोगु जानकिहि यह बरु अहई।।

जौ सखि इन्हहि देख नरनाहू। पन परिहरि हठि करइ बिबाहू।।

कोउ कह ए भूपति पहिचाने। मुनि समेत सादर सनमाने।।

सखि परंतु पनु राउ न तजई। बिधि बस हठि अबिबेकहि भजई।।

कोउ कह जौं भल अहइ बिधाता। सब कहँ सुनिअ उचित फलदाता।।

तौ जानकिहि मिलिहि बरु एहू। नाहिन आलि इहाँ संदेहू।।

जौ बिधि बस अस बनै सँजोगू। तौ कृतकृत्य होइ सब लोगू।।

सखि हमरें आरति अति तातें। कबहुँक ए आवहिं एहि नातें।।

दो0-नाहिं त हम कहुँ सुनहु सखि इन्ह कर दरसनु दूरि।

यह संघटु तब होइ जब पुन्य पुराकृत भूरि।।222।।

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बोली अपर कहेहु सखि नीका। एहिं बिआह अति हित सबहीं का।।

कोउ कह संकर चाप कठोरा। ए स्यामल मृदुगात किसोरा।।

सबु असमंजस अहइ सयानी। यह सुनि अपर कहइ मृदु बानी।।

सखि इन्ह कहँ कोउ कोउ अस कहहीं। बड़ प्रभाउ देखत लघु अहहीं।।

परसि जासु पद पंकज धूरी। तरी अहल्या कृत अघ भूरी।।

सो कि रहिहि बिनु सिवधनु तोरें। यह प्रतीति परिहरिअ न भोरें।।

जेहिं बिरंचि रचि सीय सँवारी। तेहिं स्यामल बरु रचेउ बिचारी।।

तासु बचन सुनि सब हरषानीं। ऐसेइ होउ कहहिं मुदु बानी।।

दो0-हियँ हरषहिं बरषहिं सुमन सुमुखि सुलोचनि बृंद।

जाहिं जहाँ जहँ बंधु दोउ तहँ तहँ परमानंद।।223।।

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पुर पूरब दिसि गे दोउ भाई। जहँ धनुमख हित भूमि बनाई।।

अति बिस्तार चारु गच ढारी। बिमल बेदिका रुचिर सँवारी।।

चहुँ दिसि कंचन मंच बिसाला। रचे जहाँ बेठहिं महिपाला।।

तेहि पाछें समीप चहुँ पासा। अपर मंच मंडली बिलासा।।

कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई। बैठहिं नगर लोग जहँ जाई।।

तिन्ह के निकट बिसाल सुहाए। धवल धाम बहुबरन बनाए।।

जहँ बैंठैं देखहिं सब नारी। जथा जोगु निज कुल अनुहारी।।

पुर बालक कहि कहि मृदु बचना। सादर प्रभुहि देखावहिं रचना।।

दो0-सब सिसु एहि मिस प्रेमबस परसि मनोहर गात।

तन पुलकहिं अति हरषु हियँ देखि देखि दोउ भ्रात।।224।।

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सिसु सब राम प्रेमबस जाने। प्रीति समेत निकेत बखाने।।

निज निज रुचि सब लेंहिं बोलाई। सहित सनेह जाहिं दोउ भाई।।

राम देखावहिं अनुजहि रचना। कहि मृदु मधुर मनोहर बचना।।

लव निमेष महँ भुवन निकाया। रचइ जासु अनुसासन माया।।

भगति हेतु सोइ दीनदयाला। चितवत चकित धनुष मखसाला।।

कौतुक देखि चले गुरु पाहीं। जानि बिलंबु त्रास मन माहीं।।

जासु त्रास डर कहुँ डर होई। भजन प्रभाउ देखावत सोई।।

कहि बातें मृदु मधुर सुहाईं। किए बिदा बालक बरिआई।।

दो0-सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ।

गुर पद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ।।225।।

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निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा। सबहीं संध्याबंदनु कीन्हा।।

कहत कथा इतिहास पुरानी। रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी।।

मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई। लगे चरन चापन दोउ भाई।।

जिन्ह के चरन सरोरुह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी।।

तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते। गुर पद कमल पलोटत प्रीते।।

बारबार मुनि अग्या दीन्ही। रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही।।

चापत चरन लखनु उर लाएँ। सभय सप्रेम परम सचु पाएँ।।

पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता। पौढ़े धरि उर पद जलजाता।।

दो0-उठे लखन निसि बिगत सुनि अरुनसिखा धुनि कान।।

गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान।।226।।

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सकल सौच करि जाइ नहाए। नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए।।

समय जानि गुर आयसु पाई। लेन प्रसून चले दोउ भाई।।

भूप बागु बर देखेउ जाई। जहँ बसंत रितु रही लोभाई।।

लागे बिटप मनोहर नाना। बरन बरन बर बेलि बिताना।।

नव पल्लव फल सुमान सुहाए। निज संपति सुर रूख लजाए।।

चातक कोकिल कीर चकोरा। कूजत बिहग नटत कल मोरा।।

मध्य बाग सरु सोह सुहावा। मनि सोपान बिचित्र बनावा।।

बिमल सलिलु सरसिज बहुरंगा। जलखग कूजत गुंजत भृंगा।।

दो0-बागु तड़ागु बिलोकि प्रभु हरषे बंधु समेत।

परम रम्य आरामु यहु जो रामहि सुख देत।।227।।

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चहुँ दिसि चितइ पूँछि मालिगन। लगे लेन दल फूल मुदित मन।।

तेहि अवसर सीता तहँ आई। गिरिजा पूजन जननि पठाई।।

संग सखीं सब सुभग सयानी। गावहिं गीत मनोहर बानी।।

सर समीप गिरिजा गृह सोहा। बरनि न जाइ देखि मनु मोहा।।

मज्जनु करि सर सखिन्ह समेता। गई मुदित मन गौरि निकेता।।

पूजा कीन्हि अधिक अनुरागा। निज अनुरूप सुभग बरु मागा।।

एक सखी सिय संगु बिहाई। गई रही देखन फुलवाई।।

तेहि दोउ बंधु बिलोके जाई। प्रेम बिबस सीता पहिं आई।।

दो0-तासु दसा देखि सखिन्ह पुलक गात जलु नैन।

कहु कारनु निज हरष कर पूछहि सब मृदु बैन।।228।।

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देखन बागु कुअँर दुइ आए। बय किसोर सब भाँति सुहाए।।

स्याम गौर किमि कहौं बखानी। गिरा अनयन नयन बिनु बानी।।

सुनि हरषीँ सब सखीं सयानी। सिय हियँ अति उतकंठा जानी।।

एक कहइ नृपसुत तेइ आली। सुने जे मुनि सँग आए काली।।

जिन्ह निज रूप मोहनी डारी। कीन्ह स्वबस नगर नर नारी।।

बरनत छबि जहँ तहँ सब लोगू। अवसि देखिअहिं देखन जोगू।।

तासु वचन अति सियहि सुहाने। दरस लागि लोचन अकुलाने।।

चली अग्र करि प्रिय सखि सोई। प्रीति पुरातन लखइ न कोई।।

दो0-सुमिरि सीय नारद बचन उपजी प्रीति पुनीत।।

चकित बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी सभीत।।229।।

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कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि।।

मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही।।मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही।।

अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। सिय मुख ससि भए नयन चकोरा।।

भए बिलोचन चारु अचंचल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल।।

देखि सीय सोभा सुखु पावा। हृदयँ सराहत बचनु न आवा।।

जनु बिरंचि सब निज निपुनाई। बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई।।

सुंदरता कहुँ सुंदर करई। छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई।।

सब उपमा कबि रहे जुठारी। केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी।।

दो0-सिय सोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि।

बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि।।230।।

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तात जनकतनया यह सोई। धनुषजग्य जेहि कारन होई।।

पूजन गौरि सखीं लै आई। करत प्रकासु फिरइ फुलवाई।।

जासु बिलोकि अलोकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु छोभा।।

सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता।।

रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ। मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ।।

मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी।।

जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी। नहिं पावहिं परतिय मनु डीठी।।

मंगन लहहि न जिन्ह कै नाहीं। ते नरबर थोरे जग माहीं।।

दो0-करत बतकहि अनुज सन मन सिय रूप लोभान।

मुख सरोज मकरंद छबि करइ मधुप इव पान।।231।।

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चितवहि चकित चहूँ दिसि सीता। कहँ गए नृपकिसोर मनु चिंता।।

जहँ बिलोक मृग सावक नैनी। जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी।।

लता ओट तब सखिन्ह लखाए। स्यामल गौर किसोर सुहाए।।

देखि रूप लोचन ललचाने। हरषे जनु निज निधि पहिचाने।।

थके नयन रघुपति छबि देखें। पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें।।

अधिक सनेहँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी।।

लोचन मग रामहि उर आनी। दीन्हे पलक कपाट सयानी।।

जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी। कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी।।

दो0-लताभवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाइ।

निकसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाइ।।232।।

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सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा। नील पीत जलजाभ सरीरा।।

मोरपंख सिर सोहत नीके। गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के।।

भाल तिलक श्रमबिंदु सुहाए। श्रवन सुभग भूषन छबि छाए।।

बिकट भृकुटि कच घूघरवारे। नव सरोज लोचन रतनारे।।

चारु चिबुक नासिका कपोला। हास बिलास लेत मनु मोला।।

मुखछबि कहि न जाइ मोहि पाहीं। जो बिलोकि बहु काम लजाहीं।।

उर मनि माल कंबु कल गीवा। काम कलभ कर भुज बलसींवा।।

सुमन समेत बाम कर दोना। सावँर कुअँर सखी सुठि लोना।।

दो0-केहरि कटि पट पीत धर सुषमा सील निधान।

देखि भानुकुलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान।।233।।

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