JAI SHRI RAM

JAI SHRI RAM

Wednesday, 15 August 2012

–*–*–

नित नूतन मंगल पुर माहीं। निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीं।।

बड़े भोर भूपतिमनि जागे। जाचक गुन गन गावन लागे।।

देखि कुअँर बर बधुन्ह समेता। किमि कहि जात मोदु मन जेता।।

प्रातक्रिया करि गे गुरु पाहीं। महाप्रमोदु प्रेमु मन माहीं।।

करि प्रनाम पूजा कर जोरी। बोले गिरा अमिअँ जनु बोरी।।

तुम्हरी कृपाँ सुनहु मुनिराजा। भयउँ आजु मैं पूरनकाजा।।

अब सब बिप्र बोलाइ गोसाईं। देहु धेनु सब भाँति बनाई।।

सुनि गुर करि महिपाल बड़ाई। पुनि पठए मुनि बृंद बोलाई।।

दो0-बामदेउ अरु देवरिषि बालमीकि जाबालि।

आए मुनिबर निकर तब कौसिकादि तपसालि।।330।।

–*–*–

दंड प्रनाम सबहि नृप कीन्हे। पूजि सप्रेम बरासन दीन्हे।।

चारि लच्छ बर धेनु मगाई। कामसुरभि सम सील सुहाई।।

सब बिधि सकल अलंकृत कीन्हीं। मुदित महिप महिदेवन्ह दीन्हीं।।

करत बिनय बहु बिधि नरनाहू। लहेउँ आजु जग जीवन लाहू।।

पाइ असीस महीसु अनंदा। लिए बोलि पुनि जाचक बृंदा।।

कनक बसन मनि हय गय स्यंदन। दिए बूझि रुचि रबिकुलनंदन।।

चले पढ़त गावत गुन गाथा। जय जय जय दिनकर कुल नाथा।।

एहि बिधि राम बिआह उछाहू। सकइ न बरनि सहस मुख जाहू।।

दो0-बार बार कौसिक चरन सीसु नाइ कह राउ।

यह सबु सुखु मुनिराज तव कृपा कटाच्छ पसाउ।।331।।

–*–*–

जनक सनेहु सीलु करतूती। नृपु सब भाँति सराह बिभूती।।

दिन उठि बिदा अवधपति मागा। राखहिं जनकु सहित अनुरागा।।

नित नूतन आदरु अधिकाई। दिन प्रति सहस भाँति पहुनाई।।

नित नव नगर अनंद उछाहू। दसरथ गवनु सोहाइ न काहू।।

बहुत दिवस बीते एहि भाँती। जनु सनेह रजु बँधे बराती।।

कौसिक सतानंद तब जाई। कहा बिदेह नृपहि समुझाई।।

अब दसरथ कहँ आयसु देहू। जद्यपि छाड़ि न सकहु सनेहू।।

भलेहिं नाथ कहि सचिव बोलाए। कहि जय जीव सीस तिन्ह नाए।।

दो0-अवधनाथु चाहत चलन भीतर करहु जनाउ।

भए प्रेमबस सचिव सुनि बिप्र सभासद राउ।।332।।

–*–*–

पुरबासी सुनि चलिहि बराता। बूझत बिकल परस्पर बाता।।

सत्य गवनु सुनि सब बिलखाने। मनहुँ साँझ सरसिज सकुचाने।।

जहँ जहँ आवत बसे बराती। तहँ तहँ सिद्ध चला बहु भाँती।।

बिबिध भाँति मेवा पकवाना। भोजन साजु न जाइ बखाना।।

भरि भरि बसहँ अपार कहारा। पठई जनक अनेक सुसारा।।

तुरग लाख रथ सहस पचीसा। सकल सँवारे नख अरु सीसा।।

मत्त सहस दस सिंधुर साजे। जिन्हहि देखि दिसिकुंजर लाजे।।

कनक बसन मनि भरि भरि जाना। महिषीं धेनु बस्तु बिधि नाना।।

दो0-दाइज अमित न सकिअ कहि दीन्ह बिदेहँ बहोरि।

जो अवलोकत लोकपति लोक संपदा थोरि।।333।।

–*–*–

सबु समाजु एहि भाँति बनाई। जनक अवधपुर दीन्ह पठाई।।

चलिहि बरात सुनत सब रानीं। बिकल मीनगन जनु लघु पानीं।।

पुनि पुनि सीय गोद करि लेहीं। देइ असीस सिखावनु देहीं।।

होएहु संतत पियहि पिआरी। चिरु अहिबात असीस हमारी।।

सासु ससुर गुर सेवा करेहू। पति रुख लखि आयसु अनुसरेहू।।

अति सनेह बस सखीं सयानी। नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी।।

सादर सकल कुअँरि समुझाई। रानिन्ह बार बार उर लाई।।

बहुरि बहुरि भेटहिं महतारीं। कहहिं बिरंचि रचीं कत नारीं।।

दो0-तेहि अवसर भाइन्ह सहित रामु भानु कुल केतु।

चले जनक मंदिर मुदित बिदा करावन हेतु।।334।।

–*–*–

चारिअ भाइ सुभायँ सुहाए। नगर नारि नर देखन धाए।।

कोउ कह चलन चहत हहिं आजू। कीन्ह बिदेह बिदा कर साजू।।

लेहु नयन भरि रूप निहारी। प्रिय पाहुने भूप सुत चारी।।

को जानै केहि सुकृत सयानी। नयन अतिथि कीन्हे बिधि आनी।।

मरनसीलु जिमि पाव पिऊषा। सुरतरु लहै जनम कर भूखा।।

पाव नारकी हरिपदु जैसें। इन्ह कर दरसनु हम कहँ तैसे।।

निरखि राम सोभा उर धरहू। निज मन फनि मूरति मनि करहू।।

एहि बिधि सबहि नयन फलु देता। गए कुअँर सब राज निकेता।।

दो0-रूप सिंधु सब बंधु लखि हरषि उठा रनिवासु।

करहि निछावरि आरती महा मुदित मन सासु।।335।।

–*–*–

देखि राम छबि अति अनुरागीं। प्रेमबिबस पुनि पुनि पद लागीं।।

रही न लाज प्रीति उर छाई। सहज सनेहु बरनि किमि जाई।।

भाइन्ह सहित उबटि अन्हवाए। छरस असन अति हेतु जेवाँए।।

बोले रामु सुअवसरु जानी। सील सनेह सकुचमय बानी।।

राउ अवधपुर चहत सिधाए। बिदा होन हम इहाँ पठाए।।

मातु मुदित मन आयसु देहू। बालक जानि करब नित नेहू।।

सुनत बचन बिलखेउ रनिवासू। बोलि न सकहिं प्रेमबस सासू।।

हृदयँ लगाइ कुअँरि सब लीन्ही। पतिन्ह सौंपि बिनती अति कीन्ही।।

छं0-करि बिनय सिय रामहि समरपी जोरि कर पुनि पुनि कहै।

बलि जाँउ तात सुजान तुम्ह कहुँ बिदित गति सब की अहै।।

परिवार पुरजन मोहि राजहि प्रानप्रिय सिय जानिबी।

तुलसीस सीलु सनेहु लखि निज किंकरी करि मानिबी।।

सो0-तुम्ह परिपूरन काम जान सिरोमनि भावप्रिय।

जन गुन गाहक राम दोष दलन करुनायतन।।336।।

अस कहि रही चरन गहि रानी। प्रेम पंक जनु गिरा समानी।।

सुनि सनेहसानी बर बानी। बहुबिधि राम सासु सनमानी।।

राम बिदा मागत कर जोरी। कीन्ह प्रनामु बहोरि बहोरी।।

पाइ असीस बहुरि सिरु नाई। भाइन्ह सहित चले रघुराई।।

मंजु मधुर मूरति उर आनी। भई सनेह सिथिल सब रानी।।

पुनि धीरजु धरि कुअँरि हँकारी। बार बार भेटहिं महतारीं।।

पहुँचावहिं फिरि मिलहिं बहोरी। बढ़ी परस्पर प्रीति न थोरी।।

पुनि पुनि मिलत सखिन्ह बिलगाई। बाल बच्छ जिमि धेनु लवाई।।

दो0-प्रेमबिबस नर नारि सब सखिन्ह सहित रनिवासु।

मानहुँ कीन्ह बिदेहपुर करुनाँ बिरहँ निवासु।।337।।

–*–*–

सुक सारिका जानकी ज्याए। कनक पिंजरन्हि राखि पढ़ाए।।

ब्याकुल कहहिं कहाँ बैदेही। सुनि धीरजु परिहरइ न केही।।

भए बिकल खग मृग एहि भाँति। मनुज दसा कैसें कहि जाती।।

बंधु समेत जनकु तब आए। प्रेम उमगि लोचन जल छाए।।

सीय बिलोकि धीरता भागी। रहे कहावत परम बिरागी।।

लीन्हि राँय उर लाइ जानकी। मिटी महामरजाद ग्यान की।।

समुझावत सब सचिव सयाने। कीन्ह बिचारु न अवसर जाने।।

बारहिं बार सुता उर लाई। सजि सुंदर पालकीं मगाई।।

दो0-प्रेमबिबस परिवारु सबु जानि सुलगन नरेस।

कुँअरि चढ़ाई पालकिन्ह सुमिरे सिद्धि गनेस।।338।।

–*–*–

बहुबिधि भूप सुता समुझाई। नारिधरमु कुलरीति सिखाई।।

दासीं दास दिए बहुतेरे। सुचि सेवक जे प्रिय सिय केरे।।

सीय चलत ब्याकुल पुरबासी। होहिं सगुन सुभ मंगल रासी।।

भूसुर सचिव समेत समाजा। संग चले पहुँचावन राजा।।

समय बिलोकि बाजने बाजे। रथ गज बाजि बरातिन्ह साजे।।

दसरथ बिप्र बोलि सब लीन्हे। दान मान परिपूरन कीन्हे।।

चरन सरोज धूरि धरि सीसा। मुदित महीपति पाइ असीसा।।

सुमिरि गजाननु कीन्ह पयाना। मंगलमूल सगुन भए नाना।।

दो0-सुर प्रसून बरषहि हरषि करहिं अपछरा गान।

चले अवधपति अवधपुर मुदित बजाइ निसान।।339।।

–*–*–

नृप करि बिनय महाजन फेरे। सादर सकल मागने टेरे।।

भूषन बसन बाजि गज दीन्हे। प्रेम पोषि ठाढ़े सब कीन्हे।।

बार बार बिरिदावलि भाषी। फिरे सकल रामहि उर राखी।।

बहुरि बहुरि कोसलपति कहहीं। जनकु प्रेमबस फिरै न चहहीं।।

पुनि कह भूपति बचन सुहाए। फिरिअ महीस दूरि बड़ि आए।।

राउ बहोरि उतरि भए ठाढ़े। प्रेम प्रबाह बिलोचन बाढ़े।।

तब बिदेह बोले कर जोरी। बचन सनेह सुधाँ जनु बोरी।।

करौ कवन बिधि बिनय बनाई। महाराज मोहि दीन्हि बड़ाई।।

दो0-कोसलपति समधी सजन सनमाने सब भाँति।

मिलनि परसपर बिनय अति प्रीति न हृदयँ समाति।।340।।

–*–*–

मुनि मंडलिहि जनक सिरु नावा। आसिरबादु सबहि सन पावा।।

सादर पुनि भेंटे जामाता। रूप सील गुन निधि सब भ्राता।।

जोरि पंकरुह पानि सुहाए। बोले बचन प्रेम जनु जाए।।

राम करौ केहि भाँति प्रसंसा। मुनि महेस मन मानस हंसा।।

करहिं जोग जोगी जेहि लागी। कोहु मोहु ममता मदु त्यागी।।

ब्यापकु ब्रह्मु अलखु अबिनासी। चिदानंदु निरगुन गुनरासी।।

मन समेत जेहि जान न बानी। तरकि न सकहिं सकल अनुमानी।।

महिमा निगमु नेति कहि कहई। जो तिहुँ काल एकरस रहई।।

दो0-नयन बिषय मो कहुँ भयउ सो समस्त सुख मूल।

सबइ लाभु जग जीव कहँ भएँ ईसु अनुकुल।।341।।

–*–*–

सबहि भाँति मोहि दीन्हि बड़ाई। निज जन जानि लीन्ह अपनाई।।

होहिं सहस दस सारद सेषा। करहिं कलप कोटिक भरि लेखा।।

मोर भाग्य राउर गुन गाथा। कहि न सिराहिं सुनहु रघुनाथा।।

मै कछु कहउँ एक बल मोरें। तुम्ह रीझहु सनेह सुठि थोरें।।

बार बार मागउँ कर जोरें। मनु परिहरै चरन जनि भोरें।।

सुनि बर बचन प्रेम जनु पोषे। पूरनकाम रामु परितोषे।।

करि बर बिनय ससुर सनमाने। पितु कौसिक बसिष्ठ सम जाने।।

बिनती बहुरि भरत सन कीन्ही। मिलि सप्रेमु पुनि आसिष दीन्ही।।

दो0-मिले लखन रिपुसूदनहि दीन्हि असीस महीस।

भए परस्पर प्रेमबस फिरि फिरि नावहिं सीस।।342।।

–*–*–

बार बार करि बिनय बड़ाई। रघुपति चले संग सब भाई।।

जनक गहे कौसिक पद जाई। चरन रेनु सिर नयनन्ह लाई।।

सुनु मुनीस बर दरसन तोरें। अगमु न कछु प्रतीति मन मोरें।।

जो सुखु सुजसु लोकपति चहहीं। करत मनोरथ सकुचत अहहीं।।

सो सुखु सुजसु सुलभ मोहि स्वामी। सब सिधि तव दरसन अनुगामी।।

कीन्हि बिनय पुनि पुनि सिरु नाई। फिरे महीसु आसिषा पाई।।

चली बरात निसान बजाई। मुदित छोट बड़ सब समुदाई।।

रामहि निरखि ग्राम नर नारी। पाइ नयन फलु होहिं सुखारी।।

दो0-बीच बीच बर बास करि मग लोगन्ह सुख देत।

अवध समीप पुनीत दिन पहुँची आइ जनेत।।343।।û

–*–*–

हने निसान पनव बर बाजे। भेरि संख धुनि हय गय गाजे।।

झाँझि बिरव डिंडमीं सुहाई। सरस राग बाजहिं सहनाई।।

पुर जन आवत अकनि बराता। मुदित सकल पुलकावलि गाता।।

निज निज सुंदर सदन सँवारे। हाट बाट चौहट पुर द्वारे।।

गलीं सकल अरगजाँ सिंचाई। जहँ तहँ चौकें चारु पुराई।।

बना बजारु न जाइ बखाना। तोरन केतु पताक बिताना।।

सफल पूगफल कदलि रसाला। रोपे बकुल कदंब तमाला।।

लगे सुभग तरु परसत धरनी। मनिमय आलबाल कल करनी।।

दो0-बिबिध भाँति मंगल कलस गृह गृह रचे सँवारि।

सुर ब्रह्मादि सिहाहिं सब रघुबर पुरी निहारि।।344।।

–*–*–

भूप भवन तेहि अवसर सोहा। रचना देखि मदन मनु मोहा।।

मंगल सगुन मनोहरताई। रिधि सिधि सुख संपदा सुहाई।।

जनु उछाह सब सहज सुहाए। तनु धरि धरि दसरथ दसरथ गृहँ छाए।।

देखन हेतु राम बैदेही। कहहु लालसा होहि न केही।।

जुथ जूथ मिलि चलीं सुआसिनि। निज छबि निदरहिं मदन बिलासनि।।

सकल सुमंगल सजें आरती। गावहिं जनु बहु बेष भारती।।

भूपति भवन कोलाहलु होई। जाइ न बरनि समउ सुखु सोई।।

कौसल्यादि राम महतारीं। प्रेम बिबस तन दसा बिसारीं।।

दो0-दिए दान बिप्रन्ह बिपुल पूजि गनेस पुरारी।

प्रमुदित परम दरिद्र जनु पाइ पदारथ चारि।।345।।

–*–*–

मोद प्रमोद बिबस सब माता। चलहिं न चरन सिथिल भए गाता।।

राम दरस हित अति अनुरागीं। परिछनि साजु सजन सब लागीं।।

बिबिध बिधान बाजने बाजे। मंगल मुदित सुमित्राँ साजे।।

हरद दूब दधि पल्लव फूला। पान पूगफल मंगल मूला।।

अच्छत अंकुर लोचन लाजा। मंजुल मंजरि तुलसि बिराजा।।

छुहे पुरट घट सहज सुहाए। मदन सकुन जनु नीड़ बनाए।।

सगुन सुंगध न जाहिं बखानी। मंगल सकल सजहिं सब रानी।।

रचीं आरतीं बहुत बिधाना। मुदित करहिं कल मंगल गाना।।

दो0-कनक थार भरि मंगलन्हि कमल करन्हि लिएँ मात।

चलीं मुदित परिछनि करन पुलक पल्लवित गात।।346।।

–*–*–

धूप धूम नभु मेचक भयऊ। सावन घन घमंडु जनु ठयऊ।।

सुरतरु सुमन माल सुर बरषहिं। मनहुँ बलाक अवलि मनु करषहिं।।

मंजुल मनिमय बंदनिवारे। मनहुँ पाकरिपु चाप सँवारे।।

प्रगटहिं दुरहिं अटन्ह पर भामिनि। चारु चपल जनु दमकहिं दामिनि।।

दुंदुभि धुनि घन गरजनि घोरा। जाचक चातक दादुर मोरा।।

सुर सुगन्ध सुचि बरषहिं बारी। सुखी सकल ससि पुर नर नारी।।

समउ जानी गुर आयसु दीन्हा। पुर प्रबेसु रघुकुलमनि कीन्हा।।

सुमिरि संभु गिरजा गनराजा। मुदित महीपति सहित समाजा।।

दो0-होहिं सगुन बरषहिं सुमन सुर दुंदुभीं बजाइ।

बिबुध बधू नाचहिं मुदित मंजुल मंगल गाइ।।347।।

–*–*–

मागध सूत बंदि नट नागर। गावहिं जसु तिहु लोक उजागर।।

जय धुनि बिमल बेद बर बानी। दस दिसि सुनिअ सुमंगल सानी।।

बिपुल बाजने बाजन लागे। नभ सुर नगर लोग अनुरागे।।

बने बराती बरनि न जाहीं। महा मुदित मन सुख न समाहीं।।

पुरबासिन्ह तब राय जोहारे। देखत रामहि भए सुखारे।।

करहिं निछावरि मनिगन चीरा। बारि बिलोचन पुलक सरीरा।।

आरति करहिं मुदित पुर नारी। हरषहिं निरखि कुँअर बर चारी।।

सिबिका सुभग ओहार उघारी। देखि दुलहिनिन्ह होहिं सुखारी।।

दो0-एहि बिधि सबही देत सुखु आए राजदुआर।

मुदित मातु परुछनि करहिं बधुन्ह समेत कुमार।।348।।

–*–*–

करहिं आरती बारहिं बारा। प्रेमु प्रमोदु कहै को पारा।।

भूषन मनि पट नाना जाती।।करही निछावरि अगनित भाँती।।

बधुन्ह समेत देखि सुत चारी। परमानंद मगन महतारी।।

पुनि पुनि सीय राम छबि देखी।।मुदित सफल जग जीवन लेखी।।

सखीं सीय मुख पुनि पुनि चाही। गान करहिं निज सुकृत सराही।।

बरषहिं सुमन छनहिं छन देवा। नाचहिं गावहिं लावहिं सेवा।।

देखि मनोहर चारिउ जोरीं। सारद उपमा सकल ढँढोरीं।।

देत न बनहिं निपट लघु लागी। एकटक रहीं रूप अनुरागीं।।

दो0-निगम नीति कुल रीति करि अरघ पाँवड़े देत।

बधुन्ह सहित सुत परिछि सब चलीं लवाइ निकेत।।349।।

–*–*–

चारि सिंघासन सहज सुहाए। जनु मनोज निज हाथ बनाए।।

तिन्ह पर कुअँरि कुअँर बैठारे। सादर पाय पुनित पखारे।।

धूप दीप नैबेद बेद बिधि। पूजे बर दुलहिनि मंगलनिधि।।

बारहिं बार आरती करहीं। ब्यजन चारु चामर सिर ढरहीं।।

बस्तु अनेक निछावर होहीं। भरीं प्रमोद मातु सब सोहीं।।

पावा परम तत्व जनु जोगीं। अमृत लहेउ जनु संतत रोगीं।।

जनम रंक जनु पारस पावा। अंधहि लोचन लाभु सुहावा।।

मूक बदन जनु सारद छाई। मानहुँ समर सूर जय पाई।।

दो0-एहि सुख ते सत कोटि गुन पावहिं मातु अनंदु।।

भाइन्ह सहित बिआहि घर आए रघुकुलचंदु।।350(क)।।

लोक रीत जननी करहिं बर दुलहिनि सकुचाहिं।

मोदु बिनोदु बिलोकि बड़ रामु मनहिं मुसकाहिं।।350(ख)।।

–*–*–

देव पितर पूजे बिधि नीकी। पूजीं सकल बासना जी की।।

सबहिं बंदि मागहिं बरदाना। भाइन्ह सहित राम कल्याना।।

अंतरहित सुर आसिष देहीं। मुदित मातु अंचल भरि लेंहीं।।

भूपति बोलि बराती लीन्हे। जान बसन मनि भूषन दीन्हे।।

आयसु पाइ राखि उर रामहि। मुदित गए सब निज निज धामहि।।

पुर नर नारि सकल पहिराए। घर घर बाजन लगे बधाए।।

जाचक जन जाचहि जोइ जोई। प्रमुदित राउ देहिं सोइ सोई।।

सेवक सकल बजनिआ नाना। पूरन किए दान सनमाना।।

दो0-देंहिं असीस जोहारि सब गावहिं गुन गन गाथ।

तब गुर भूसुर सहित गृहँ गवनु कीन्ह नरनाथ।।351।।

–*–*–

जो बसिष्ठ अनुसासन दीन्ही। लोक बेद बिधि सादर कीन्ही।।

भूसुर भीर देखि सब रानी। सादर उठीं भाग्य बड़ जानी।।

पाय पखारि सकल अन्हवाए। पूजि भली बिधि भूप जेवाँए।।

आदर दान प्रेम परिपोषे। देत असीस चले मन तोषे।।

बहु बिधि कीन्हि गाधिसुत पूजा। नाथ मोहि सम धन्य न दूजा।।

कीन्हि प्रसंसा भूपति भूरी। रानिन्ह सहित लीन्हि पग धूरी।।

भीतर भवन दीन्ह बर बासु। मन जोगवत रह नृप रनिवासू।।

पूजे गुर पद कमल बहोरी। कीन्हि बिनय उर प्रीति न थोरी।।

दो0-बधुन्ह समेत कुमार सब रानिन्ह सहित महीसु।

पुनि पुनि बंदत गुर चरन देत असीस मुनीसु।।352।।

–*–*–

बिनय कीन्हि उर अति अनुरागें। सुत संपदा राखि सब आगें।।

नेगु मागि मुनिनायक लीन्हा। आसिरबादु बहुत बिधि दीन्हा।।

उर धरि रामहि सीय समेता। हरषि कीन्ह गुर गवनु निकेता।।

बिप्रबधू सब भूप बोलाई। चैल चारु भूषन पहिराई।।

बहुरि बोलाइ सुआसिनि लीन्हीं। रुचि बिचारि पहिरावनि दीन्हीं।।

नेगी नेग जोग सब लेहीं। रुचि अनुरुप भूपमनि देहीं।।

प्रिय पाहुने पूज्य जे जाने। भूपति भली भाँति सनमाने।।

देव देखि रघुबीर बिबाहू। बरषि प्रसून प्रसंसि उछाहू।।

दो0-चले निसान बजाइ सुर निज निज पुर सुख पाइ।

कहत परसपर राम जसु प्रेम न हृदयँ समाइ।।353।।

–*–*–

No comments:

Post a Comment