JAI SHRI RAM

JAI SHRI RAM

Wednesday, 15 August 2012

सब बिधि सबहि समदि नरनाहू। रहा हृदयँ भरि पूरि उछाहू।।

जहँ रनिवासु तहाँ पगु धारे। सहित बहूटिन्ह कुअँर निहारे।।

लिए गोद करि मोद समेता। को कहि सकइ भयउ सुखु जेता।।

बधू सप्रेम गोद बैठारीं। बार बार हियँ हरषि दुलारीं।।

देखि समाजु मुदित रनिवासू। सब कें उर अनंद कियो बासू।।

कहेउ भूप जिमि भयउ बिबाहू। सुनि हरषु होत सब काहू।।

जनक राज गुन सीलु बड़ाई। प्रीति रीति संपदा सुहाई।।

बहुबिधि भूप भाट जिमि बरनी। रानीं सब प्रमुदित सुनि करनी।।

दो0-सुतन्ह समेत नहाइ नृप बोलि बिप्र गुर ग्याति।

भोजन कीन्ह अनेक बिधि घरी पंच गइ राति।।354।।

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मंगलगान करहिं बर भामिनि। भै सुखमूल मनोहर जामिनि।।

अँचइ पान सब काहूँ पाए। स्त्रग सुगंध भूषित छबि छाए।।

रामहि देखि रजायसु पाई। निज निज भवन चले सिर नाई।।

प्रेम प्रमोद बिनोदु बढ़ाई। समउ समाजु मनोहरताई।।

कहि न सकहि सत सारद सेसू। बेद बिरंचि महेस गनेसू।।

सो मै कहौं कवन बिधि बरनी। भूमिनागु सिर धरइ कि धरनी।।

नृप सब भाँति सबहि सनमानी। कहि मृदु बचन बोलाई रानी।।

बधू लरिकनीं पर घर आईं। राखेहु नयन पलक की नाई।।

दो0-लरिका श्रमित उनीद बस सयन करावहु जाइ।

अस कहि गे बिश्रामगृहँ राम चरन चितु लाइ।।355।।

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भूप बचन सुनि सहज सुहाए। जरित कनक मनि पलँग डसाए।।

सुभग सुरभि पय फेन समाना। कोमल कलित सुपेतीं नाना।।

उपबरहन बर बरनि न जाहीं। स्त्रग सुगंध मनिमंदिर माहीं।।

रतनदीप सुठि चारु चँदोवा। कहत न बनइ जान जेहिं जोवा।।

सेज रुचिर रचि रामु उठाए। प्रेम समेत पलँग पौढ़ाए।।

अग्या पुनि पुनि भाइन्ह दीन्ही। निज निज सेज सयन तिन्ह कीन्ही।।

देखि स्याम मृदु मंजुल गाता। कहहिं सप्रेम बचन सब माता।।

मारग जात भयावनि भारी। केहि बिधि तात ताड़का मारी।।

दो0-घोर निसाचर बिकट भट समर गनहिं नहिं काहु।।

मारे सहित सहाय किमि खल मारीच सुबाहु।।356।।

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